सूर-वात्सल्य केचितेरेकवि
DOI:
https://doi.org/10.8476/sampreshan.v15i3.168Abstract
सूर का वात्सल्यावर्णन मनोविज्ञान - भक्ति और दर्द का ऐसा पावान संगम है जिसमें स्नान करके पाठक, श्रोता का विगत कलुषही धुल जाता है। सैकड़ों वर्षों से कही जान वाले थे उक्तियाँ सत्य प्रतीत होती है कि “सूर कवित्त सुनि कौर नरजो नहीं, सिरचालन करे” और “सूर वात्सल्य हैऔर वात्सल्य सूर है' यह एक बड़ी आल्हादक और आश्चर्य पूर्ण बात है कि सूर से पूर्वी हिन्दी कवियों में किसी ने भी वात्सल्य रस का वर्णन नही किया है। सूर नेपहली बार ही इतना सुन्दर कहा कि कहनेकोकुछ शेषनहींबचा वेवात्सल्य का कौनों कौना झांक आए है आचार्य शुक्ल ने भी कहा है- " वात्सल्य और श्रृंगार के क्षेत्रों का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बन्द आँखो से किया है, उतना किसी और कवि ने नहीं। इन दोनों रसों के प्रर्वतक भाव की जितनी मानसिक वृत्तियों और दशाओं का अनुभव सूर कर सके उतना अन्या कोई नहीं।"