बीसवीं सदी के अंतिम दशक की हिंदी कविता में किसान

Authors

  • डॉ.पंढरीनाथ शिवदास पाटिल

DOI:

https://doi.org/10.8476/sampreshan.v14i3.418

Abstract

किसान शब्द सुनते ही हमारे मानसपटल पर एक चित्र उभरता है जिसमें कि क पसीने से लथपथ एक व्यक्ति भूमि के किसी टुकड़े पर अपने हीरा और मोती बैल समेत हल चला रहा है, धूप में फसल की कटाई कर रहा है या फिर माथे पर फसल का बोझ अथवा बोरा लिए हुए जा रहा है, नहीं तो फिर ओला, आंधी, अनावृष्टि, अतिवृष्टि या जंगली जानवरों द्वारा नष्ट हुई फसल को माथे पर हाथ दिए देवख रहा है। परंतु किसान का जीवन इतने में ही सीमित नहीं होता। किसान का जीवन जितना व्यक्त होता है, उससे कहीं ज्यादा अव्यक्त रह जाता है। वह जीवन की परिस्थितियों से जितना बाहर लड़ता है उससे ज्यादा अंतर्मन के द्वंद्व से जूझता है। समाज में किसान अथवा उसके परिवार से लोक-लाज, मर्यादा, मनुष्यता, ईमानदारी, सहयोग, संबंध निर्वहन आदि गुणों का अनिवार्य समावेश पूर्वापेक्षित है। किसान और उसका जीवन अपने आप में एक स्वतंत्र संस्कृति है और इसीलिए इतने बडे दायित्व निर्वहन का सामर्थ्य भी किसान में ही है। वह भौतिकतावाद के रंग में आज भी उस सीमा तक नहीं रँग पाया जितना समाज का अन्य वर्ग जुड़ाव महसूस करता है। किसान का हल बैल-खेत से संबंध तो स्वाभाविक और जगजाहिर है लेकिन फावड़े से जैसा भावनात्मक संबंध मोती मुनिया के काव्य-संग्रह 'निमिष में' दिखता है, वह अपनत्व अत्यंत मनमोहक है-तुम ही तो हो./जिसे अपने सुकुमार बच्चे-सा/कंधों पर बिठा/खेत में ले जाऊँ / वापस लाऊँ-/ दिनभर तुमसे कड़ी मेहनत करवाऊँ (अपना पेट पालने)" फावड़े के प्रति ऐसा आत्मीय भाव क्या उस किसान को मनुष्यता के उच्च सोपान पर नहीं पहुँचाता जो फावड़े से पुत्रवत स्नेह करता है?

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Published

2016-2024

How to Cite

डॉ.पंढरीनाथ शिवदास पाटिल. (2025). बीसवीं सदी के अंतिम दशक की हिंदी कविता में किसान. Sampreshan, ISSN:2347-2979 UGC CARE Group 1, 14(3), 68–71. https://doi.org/10.8476/sampreshan.v14i3.418

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