हिन्दी लेखिकाओं की आत्मकथाओं में स्त्री विमर्श
DOI:
https://doi.org/10.8476/sampreshan.v14i3.353Abstract
स्त्री जाति को पुरूष की अर्द्धांगिनी कहा है, क्योंकि स्त्री पुरूष के सम्बन्ध से ही इस सृष्टि का निर्माण हुआ है। तुलसीदास जी ने 'रामचरितमानस' में कहा है कि बिना पुरुष के स्त्री व स्त्री के बिना पुरूष अधूरा है। पूर्ण मानवीय जीवन में दोनों की सहभागिता परमावश्यक है। एक का भी अभाव जीवन– गाड़ी को चलाने में सक्षम नहीं हो सकेगा। वेद-पुराणों में हो या मनुस्मृति में स्त्री को धार्मिक कार्यों में उपस्थित होना अनिवार्य माना गया है। दान– पुण्य तभी सफल होता है, जब स्त्री– पुरुष (पति-पत्नी) मिलकर करेगें। वैदिक काल में स्त्री को सम्मान प्राप्त था। मध्यकाल में आकर उसकी स्थिति दयनीय हो गई थी। धीरे-धीरे विविध परिवर्तनों ने स्त्री अस्मिता को कुचलने का प्रयास किया। स्वातंत्र्योत्तर काल में सुधारवादी नीतियों ने स्त्री विमर्श कर मानवीय संवेदनाएं प्रस्तुत की हैं।