‘उर्वशी’: प्रेम के आदर्श और यथार्थ के द्वंद्व का काव्य
DOI:
https://doi.org/10.8476/sampreshan.v17i2.343Abstract
दिनकर जी का रचनाकाल 20वी शताब्दी के तीसरे दशक से आठवें दशक के मध्यांत तक का है जिसमें समय और जीवन के वैविध्यमयि चित्र उनके साहित्य में अंकित है। इसमें उन्होंने अतीत को भी सहेजा है और भविष्य को दिशा देने का काम किया है। दिनकर जी के साहित्य में जहाँ बेचैनी और अकुलाहट विषय और अभिव्यक्ति को लेकर है वहीं विचारों का व्यवस्थित प्रवाह और उसकी सशक्त प्रस्तुति भी है जिसमें विचारों की प्रत्येक लहर अगली लहर से जुड़ी भी रहती है और उसका स्वतंत्र अस्तित्व भी रहता है। विचारों को लेकर वह कभी- कभी मार्क्स के नजदीक होते है तो कभी गांधी के। अभिव्यक्ति के लिए वह रवींद्रनाथ का भावमयता भी चाहते है तो अल्लामा इकबाल की तरह रवानगी भी। पंत की तरह स्वपन को बयाँ करना चाहते है लेकिन मैथिलीशरण गुप्त की तरह ऐसी भाषा में जो आसानी से जन के हृदय से जुड़ जाए। दिनकर जी साहित्यिक गरिमा को बरकरार रखकर काव्य रचना करना चाहते थे लेकिन साथ ही उनकी कोशिश यह भी रही कि उसमें दुरुहता न आने पाए। आज दिनकर जी की पुस्तकों के लगातार संस्करण आना सोशल मीडिया के यूट्यूब प्लेटफॉर्म पर उनकी कविताओं के वाचन के साथ-साथ उनके साहित्य पर लिखी जा रही आलोचनात्मक पुस्तक और लेख इस बात की हामी भरते है कि दिनकर अपने प्रयास में सफल हुए।