दक्षिण भारत की संत काव्यं मेंजीवन मूल
DOI:
https://doi.org/10.8476/sampreshan.v17i2.134Abstract
डॉ.रंजित एम् ,अद्ध्यक्ष हिंदी विभाग,एम्.इ.एस अस्माबी कोलेज,पी वेम्बलूर,त्रिशुर ,केरला )
संत वस्तुतः एक स्वभाव और मनोवृत्ति का नाम है। इस बारे में ‘संत हृदय नवनीत समाना’ या ‘संतों के मन रहत है, सबके हित की बात’ जैसे उद्धरण प्रसिद्ध हैं। संत के लिए ब्रह्मचारी, गृहस्थ या वानप्रस्थी होना अनिवार्य नहीं है। जो निजी या पारिवारिक हितों से ऊपर उठ चुका है; जिसने अपना तन, मन और धन समाजहित में अर्पित कर दिया है; वह संत और महात्मा है। भले ही उसकी अवस्था, शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक स्थिति कुछ भी हो
भारत में संन्यास की परम्परा बहुत पुरानी है। चार आश्रमों में सबसे अंतिम संन्यास आश्रम है। इसका अर्थ है कि अब व्यक्ति अपने सब घरेलू और सामाजिक दायित्वों से मुक्त होकर पूरी तरह ईश्वर की आराधना करे तथा अपने अगले जन्म के लिए मानसिक रूप से स्वयं को तैयार करे। 75 वर्ष के बाद इस आश्रम में जाने की व्यवस्था हमारे मनीषियों ने किया है। इस समय तक व्यक्ति का शरीर भी ऐसा नहीं रहता कि वह कोई जिम्मेदारी लेकर काम कर सके। अतः घरेलू काम बच्चों को तथा सामाजिक काम नई पीढ़ी को सौंपकर प्रभुआश्रित हो जाना ही संन्यास आश्रम है।चारों युगों में भिन्न भिन्न गुरुओं की कल्पना की गयी. अब हम दक्षिण भारत के भक्त कवियों के बारे में विचार करेंगे।